विश्वास नही होता ! मैं खुद को देख रहा हूँ। भूत , वर्तमान और भविष्य के गलिहारे में । मैं खुद को ढूढ़ रहा हूँ। अपने न होकर भी होने का प्रमाण को पर हर बार । खुद को खुद से हारा हुआ पा रहा हूँ। मैने अपनी दृष्टि को एक दिशा दे दिया हूँ। स्वयं से स्वयं के पराजय का अनुभूति कर लिया हूँ। पर हारा नही मैं अभी भी लड़ रहा हूँ। विश्वास नही होता ! मैं खुद को देख रहा हूँ। भूत , वर्तमान और भविष्य के गलिहारे में । मैं खुद को ढूढ़ रहा हूँ। :-अमितेश
मेरी नज़रो मे शांत लहरों की शरारत हो तुम , ठंडी धुप की बुख़ार वाली हरारत हो तुम , एक मधुर गीत की प्यारी सी तान हो तुम , मेरी हर एक नादान गलतियों की कारन हो तुम , मेरी हर मुस्कराहट और खुशियों का एहसास हो तुम , मैं लिखता हूं जिस दवात से उसकी स्याही हो तुम , मैं और क्या बताऊँ , शायद ...! मेरे दिल मे धड़कने वाली जान हो तुम , जो भी हो इस दुनिया की नज़र में , पर मेरे नज़र में खास हो तुम । :- अमितेश कुमार गुप्ता
नज़रे फिर से तुमसे मिलाऊँ कैसे , गलती वहीं फिर से दोहराऊं कैसे । इन आँखों को तो तम्हे देखने की आदत है, तम्हारे चक्कर मे सुधार जाऊ कैसे । मेरे लिए तो तुम्हीं सब कुछ थी और हों, अब तू ही बता तुम्हे ठुकराऊ कैसे । उस रास्ते मे तीखे मोड़ बहुत है, पर मंज़िल वही है तो मुड़ जाऊ कैसे । मैं एक बंद कमरा हू कई राजो का अरसो से, अब एक ही झटके में खुल जाऊ कैसे । हम उतने भी मोमदिल नही है जितने दिखते है, तुम्हारा साथ रहना आख़िर भूल जाऊँ कैसे । अभी पता नही कितने दिन और रह पाऊ तम्हारे बीना, इतनी जल्दी तुमको अपने जेहन से निकालू कैसे । तुम्हारे सिवाय और कोई नही हैं मेरी ज़िंदगी मे, ये बात तुम्हे समझाऊ कैसे । नज़रे फिर से, तुमसे मिलाऊँ कैसे ।।
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